भारत का संवैधानिक विकास के प्रमुख चरण

भारत का संवैधानिक विकास कैसे हुआ

भारत के संवैधानिक विकास में कोई अचानक से  बदलाव नहीं आए थे. बल्कि यह एक चरणबद्ध तरीके से अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए विभिन्न एक्टों और बिलों का का परिणाम था. अंग्रेजों ने समय-समय पर नए नए प्रावधान किए और नए-नए एक्ट पारित किए।  इन प्रावधानों का यहां विवरण दिया जा रहा है।

ईस्ट इंडिया कंपनी शासन- आरंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्वयं को व्यापारिक कार्य तक ही सीमित रखा लेकिन विभिन्न घटनाओं के परिणाम स्वरूप उसके स्वरूप में परिवर्तन हुआ और सन 1765 ईस्वी में मुगल बादशाह से बंगाल बिहार उड़ीसा की दीवानी का अधिकार प्राप्त कर दिया इस घटना के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक संगठन से राजनीतिक संगठन में परिवर्तित हो गई 1765 ईस्वी से लेकर 1772 ईस्वी तक कंपनी का प्रशासन ईस्ट इंडिया कंपनी तथा भारत दोनों के लिए अनुभवहीन रहा कंपनी ने अपनी वित्तीय स्थिति को मजबूत करने के लिए ब्रिटिश सरकार से दस लाख पाउंड का कर्ज लिया और ब्रिटिश सरकार ने इस कर्ज के बदले में ईस्ट इंडिया कंपनी पर संसदीय नियंत्रण स्थापित किया इसके लिए एक जांच समिति का गठन किया गया. इस जांच समिति की रिपोर्ट के आधार पर रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया गया यह भारत के संवैधानिक विकास का पहला चरण था.

रेगुलेटिंग एक्ट क्या है?

रेगुलेटिंग एक्ट 1973 में पारित किया गया इस एक्ट के द्वारा कंपनी के संविधान कंपनी तथा सरकार के मध्य संबंध तथा भारत में शासन की व्यवस्था तीनों को प्रभावित किया गया जो निम्नलिखित हैं

  • बंगाल के गवर्नर का पद गवर्नर जनरल कर दिया गया
  • कोलकाता में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश और 3 अन्य न्यायाधीश रखे गए अब कोलकाता सर्वोच्च न्यायालय के प्रथम मुख्य न्यायाधीश एलिजा इम्पे थे
  • कोई भी व्यक्ति ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन सैनिक अथवा असैनिक पदों पर हो वह किसी से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपहार, दान आदि ग्रहण नहीं कर सकता था.

1781 ईस्वी का संशोधन विधेयक

1781 के संशोधन विधेयक के अनुसार ईस्ट इंडिया कंपनी के पदाधिकारियों के द्वारा अपने कार्यकाल के रूप में किए गए विभिन्न कार्यों के लिए उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से स्वयं को बाहर रखना था इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार का क्षेत्र स्पष्ट किया गया जिसमें कोलकाता के सभी निवासियों को इस कानून के अंतर्गत लाया गया तथा प्रतिवादी का निजी कानून लागू करने की बात की गई

पिट्स इंडिया एक्ट 1784 क्या है

पिट्स इंडिया एक्ट ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री पिट के नाम पर बना. मराठा और अंग्रेजो के युद्ध के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक स्थिति गर्त में चली गई इसके लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने दस लाख पाउंड का ब्रिटेन सरकार से कर्ज मांगा तो कंपनी के मामलों की छानबीन करने के लिए पहले से ही प्रवर समिति एवं गुप्त संगति नियुक्त की गई थी  जिनकी  रिपोर्ट के आधार पर कंपनी के शासन की अच्छी छाप नहीं थी लॉर्ड फॉक्स एवं नॉर्थ नॉर्थ की सरकार ने एक विधेयक प्रस्तुत किया लेकिन वह विधेयक हाउसोप्लांट में पास नहीं हो सका और फॉक्स एवं लॉर्ड लॉर्ड नॉर्थ की सरकार को इस्तीफा देना पड़ा

भारतीय इतिहास में यह पहला और अंतिम अवसर था.  जब भारतीय मामलों के लिए अंग्रेजी सरकार भंग हो गई. यदि यह बिल पारित हो जाता तो ईस्ट इंडिया कंपनी एक राजनीतिक शक्ति के रूप में समाप्त हो जाती.

1786 का एक्ट

1786 के एक्ट ने गवर्नर जनरल को सर्वोच्च सेनापति के सभी अधिकार प्रदान किए तथा उसे विशेष परिस्थितियों में अपनी परिषद के निर्णय को रद्द करने का अधिकार दिया गया तथा अपने निर्णय लागू करने का भी अधिकार दिया गया सबसे पहले इस एक्ट ने यह अधिकार ‘लॉर्ड कार्नवालिस’ को प्रदान किया

1793 का चार्टर अधिनियम

1793 का चार्टर अधिनियम दे ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक अधिकारों को 20 साल के लिए और बढ़ा दिया तथा बोर्ड ऑफ कंट्रोल के सदस्यों का वेतन भारतीय को से देने का निर्णय दिया

1813 का चार्टर एक्ट

1813 का चार्टर एक्ट ने ईस्ट इंडिया कंपनी ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनैतिक और व्यापारी के एकाधिकार को समाप्त करने की मांग की उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी का साम्राज्य इतना विस्तृत हो गया कि वह अपने व्यापारिक और राजनीतिक कार्यों को नहीं संभाल सकती थी तो लेसेज फायर की नीति तथा नेपोलियन की महाद्वीपीय व्यवस्था कि इसमें महत्वपूर्ण भूमिका थी इसी परिदृश्य में सन 1813 में चार्टर एक्ट पारित हुआ तथा कंपनी का भारतीय व्यापार पर एकाधिकार समाप्त कर दिया गया और चीन का कंपनी के साथ व्यापार और चाय के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा ईस्ट इंडिया कंपनी को अगले 20 वर्ष के लिए भारतीय प्रदेशों पर तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार किसे दिया गया इसमें शिक्षा के लिए ₹100000 अलग से दिए गए.

1833 का चार्टर अधिनियम

सन 1813 तथा 1833 ईसवी के चार्टर के मध्य इंग्लैंड में बहुत परिवर्तन हुए जो निम्नलिखित हैं

  • औद्योगिक क्रांति के बाद उत्पादन में वृद्धि करना
  • 1830 में वही गदल इंग्लैंड की सत्ता में आया और उसके द्वारा उदारवादी नीति का अनुपालन ऐसे वातावरण में यह मांग उठने लगी कि कंपनी को समाप्त किया जाए और क्राउन द्वारा भारत का प्रशासन अपने हाथों में सीधे ले लिया जाए इसी पृष्ठभूमि में 1833 का चार्टर अधिनियम पारित हो गया

1853 का चार्टर अधिनियम की जानकारी

1833 का चार्टर अधिनियम पहले के चार्टरो  बिल्कुल भिन्न था यह अधिनियम निर्धारित अवधि के लिए ना होकर अनिश्चित काल के लिए लागू किया गया 1853 के एक्ट की 53 की धारा में एक विधि आयोग की नियुक्ति का भी प्रावधान था पहला विधि आयोग 1835 में लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में स्थापित हुआ जो लगभग 1843 तक बना रहा इसके बाद 1853 में दूसरा विधि आयोग स्थापित किया और 1861 में तीसरा अधिनियम बनाया गया जिसने 1872 ईसवी तक कार्य किया कानून निर्माण के लिए विधि सदस्य की नियुक्ति भारत में एक स्वतंत्र विधायक का कारण मानी जाती है

गवर्नर जनरल के विधाई कार्य में सहयोग के लिए 6 सदस्यों की नियुक्ति की गई जिसमें उच्चतम न्यायालय का न्यायधीश एक अन्य न्यायाधीश तथा 4 प्रेसिडेंटियो मद्रास बंगाल मुंबई और उत्तर पश्चिमी प्रांत के प्रतिनिधि शामिल थे जिससे क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों को बढ़ावा मिला

8858 का अधिनियम

इस अधिनियम से भारत के शासन में कंपनी के अधिकारों को कम करते हुए ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप एवं अधिकारों में वृद्धि करने की जो प्रक्रिया शुरू हुई वह 1853 में उसकी परिणिति हुई ।

1853 के कानून द्वारा कंपनी का शासन समाप्त करके क्राउन की सत्ता को भारत में स्थापित किया गया और सन 1857 की क्रांति ने इसके लिए एक बहुत बड़ा अवसर प्रदान किया

1861 का भारत परिषद अधिनियम के बारें जानकारी

1858 के सुधार कानून से गृह सरकार के ढांचे को पूरी तरह से दिया गया परन्तु भारतीय सरकार के क्षेत्र में कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं किया गया इसमें परिवर्तन की प्रक्रिया 1861 ईसवी के सुधार कानून से हुई जिसके पीछे निम्नलिखित कारण थे

भारत परिषद अधिनियम

  • सर सैयद अहमद, सर वार्टल फ्रेरे जैसे विद्वानों का मानना था कि 1857 की घटना का मुख्य कारण भारतीयों का शासन के प्रति असंतोष होना था
  • गवर्नर जनरल की परिषद संसद की भांति कार्य करने लगी थी जिससे भारतीय क्षेत्रों में समस्या उत्पन्न हुई वायसराय को अध्यादेश जारी करने की अनुमति दी गई

1892 का भारतीय परिषद अधिनियम

सन 1861 में स्थापित व्यवस्था ने दो घटनाओं ने गुणात्मक परिवर्तन ला दिए जो निम्नलिखित है।

  1. लॉर्ड रिपोन द्वारा स्थानीय स्वशासन से संबंधित प्रस्ताव तथा इससे संबंधित विधान परिषद में भी मांगे उठी.
  2. 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना जिस की प्रमुख मांग थी विधान परिषदों को अधिक से अधिक लोकतांत्रिक बनाना था.

भारत में विधान परिषद  स्थापना कब और कहाँ हुई

  1. मुंबई में 1861 ईसवी में
  2. बंगाल में 1862 ईसवी में
  3. उत्तर पश्चिमी प्रांत में 1886 ईसवी में
  4. पंजाब में 1897 ईसवी में

भारतीय परिषद एक्ट 1909 (मिंटो मार्ले सुधार)

गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो तथा भारत मंत्री लॉर्ड जान मार्ले

बीसवीं शताब्दी के शुरुआत में ही भारत में संवैधानिक परिवर्तन की मांग उठने लगी जो निम्नलिखित थी।

  • मिंटो मार्ले सुधार के द्वारा भारतीयों को विधि निर्माण तथा प्रशासन दोनों में प्रतिनिधित्व दिया गया।
  • मिंटो मार्ले सुधार अधिनियम के द्वारा मुस्लिमों के लिए अलग से मताधिकार तथा प्रथम निर्वाचन क्षेत्रों की स्थापना की गई थि.
  • परिषद के सदस्यों को बजट पर चर्चा करने तथा उस पर प्रश्न पूछने का अधिकार प्रदान किया गया।

1919 का अधिनियम

20 अगस्त 1917 को हाउस ऑफ कॉमंस में संसद के सदस्य चार्ल्स रॉबर्ट्स के एक प्रश्न का जवाब देते हुए मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड ने भारत में ब्रिटिश शासन के मकसद को लेकर घोषणा की ब्रिटिश शासन का मकसद प्रशासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों को ज्यादा से ज्यादा शामिल करना और क्रमश उत्तरदाई सरकार की स्थापना के मकसद से ब्रिटिश साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में स्वशासन की संस्थाओं का विकास करना है

घोषणा में यह भी स्पष्ट किया गया कि स्वशासन के विकास की प्रत्येक चरण की सीमा और समय का निर्धारण ब्रिटेन सरकार करेगी और इसी घोषणा को आधार मानकर के 1919 ईस्वी में भारत सरकार अधिनियम पारित किया गया।

प्रमुख प्रावधान

1-प्रांतीय संविधान

भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों के अधिकारों को क्रमशः विधायी, प्रशासनिक और द्वितीय क्षेत्रों में बांटा गया प्रांतों के विषयों को सुरक्षित और हस्तांतरित विषयों में बांटा गया

आरक्षित विषयों का शासन गवर्नर अपनी कार्यकारी परिषद की सलाह से करता था तथा हस्तांतरित विषयों पर भारतीय मंत्रियों की सलाह से कार्य करता था मंत्री व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदाई थे उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाने पर उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ता था गवर्नर की कार्यकारी परिषद के सदस्य व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदाई नहीं थे प्रांतों में संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर गवर्नर राज्य का प्रशासन एवं हस्तांतरित विषय का दायित्व अपने ऊपर ले सकता था केंद्र एवं राज्यों के मध्य विषय के विभाजन के पीछे सामान्य सिद्धांत यह था कि यदि कोई इसे एक से अधिक प्रांतों से संबंधित हो तो हुए केंद्र संख्या की परिधि में आता था 1919 के अधिनियम में कोई समवर्ती सूची नहीं थी विषयों के विवाद पर गवर्नर जनरल का अंतिम निर्णय होता था द्वैध शासन प्रणाली इस अधिनियम की मुख्य विशेषता थी इस प्रणाली के जन्मदाता लियोनेल काटिश थे जिन्होंने सर भूपेंद्र नाथ बसु के लिए एक सत्र में यह व्यवस्था का स्पष्टीकरण दिया था।

2-प्रांतीय विधायिका

प्रांतीय विधायिका 1909 की तरह ही अतिरिक्त सदस्यों से निर्मित ना होके वार्षिक रूप से चयनित की हुई कार्यकारिणी के स्वतंत्र संवैधानिक इकाई के रूप में थी और प्रांतीय विधायिका का एक सदनात्मक थी।

प्रांतीय विधायकों की अध्यक्षता गवर्नर के हाथों में ना होकर के स्वतंत्र पीठासीन अधिकारी के पास थी इसकी सदस्य संख्या बाद में बढ़ाई गई जिसमें 70 फीसदी सदस्य निर्वाचित होती थी इसके सदस्यों को चुनने की प्रणाली प्रत्यक्ष निर्वाचन थी फिर भी भारत की जनसंख्या की दृष्टि से मतदाताओं की संख्या बहुत कम थी कुल जनसंख्या का लगभग 2 फीसदी मत ही डाला जा सकता था।

सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को पूर्णता में स्थापित कर दिया गया और प्रांतीय व्यवस्था सभाएं किसी भी प्रस्ताव को पेश कर सकती थी किंतु से पारित होने के लिए गवर्नर जनरल की अनुमति आवश्यक थी गवर्नर को इसे रद्द करने का भी अधिकार था प्रांतीय परिषदों को और विधान परिषद का नाम दिया गया और चुनाव नियमों के अनुसार महिलाओं को मत देने का अधिकार नहीं था लेकिन प्रांतीय विधायक आए लिंगभेद को अपनी सदन में समुचित प्रस्ताव पारित करके दूर कर सकती थी।

3-केंद्र सरकार

केंद्र की कार्यकारिणी गवर्नर जनरल और कार्यकारिणी को मिलाकर के सपरिषद गवर्नर जनरल बनी। इस व्यवस्था में उत्तरदायित्व का सिद्धांत गौण था। गवर्नर जनरल और गवर्नर जनरल की परिषद अभी भी भारत सचिव के प्रति और उसके द्वारा ब्रिटिश संसद के प्रति ही उत्तरदाई थी।

4-केंद्रीय विधायिका

भारत में 1919 ईस्वी के अधिनियम द्वारा भारत में पहली बार द्विसदनात्मक विधायिका का गठन किया गया था। इसके तीन अंग थे। गवर्नर जनरल लेजिसलेटिव असेंबली एवं काउंसिल ऑफ स्टेट।

लेजिसलेटिव असेंबली केंद्रीय विधानसभा की निम्न सदन थी। इसमें 145 सदस्य थी और इनमें 104 सदस्य निर्वाचित और 41 सदस्य मनोनीत होते थे।

राज्य परिषद का कार्यकाल 5 वर्ष का होता था। तथा केवल पुरुषों को ही इसका सदस्य बनाया जा सकता था. केंद्रीय विधायिका का कार्यकाल 3 वर्ष का निर्धारित था. तथा सदस्य सदन में प्रश्न पूछ सकते थे. अनुपूरक मांग कर सकते थे। और स्थगन प्रस्ताव भी ला सकते थे।

5-कार्यपालिका

  • प्रांतों के आरक्षित विषयों पर गवर्नर जनरल का अधिकार था
  • कार्यकारिणी में 8 सदस्यों में 3 सदस्य भारतीय नियुक्त किए जाते थे
  • कार्यपालिका की सभी विषयों को दो भागों में बांटा गया प्रांतीय और केंद्रीय।

इंडिया ऑफिस और भारत मंत्री की जानकारी

गृह सरकार के संविधान में परिवर्तन किया गया.  इंडिया काउंसिल की सदस्य संख्या को 15 से कम करके कम से कम 8 तथा ज्यादा-से ज्यादा 12 किया गया.  जिसमें 3 सदस्य भारतीयों की नियुक्ति का प्रावधान था.  भारत मंत्री और उसके कार्यकाल का वेतन ब्रिटिश नागरिकों को देना पड़ता था।  एक भारतीय उच्चायोग की स्थापना की गई।

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